Monday, January 12, 2009

किस पर जायें हम

विडंबनाओं के व्यूह में फंसा मानस

जीवन की दुरभिसंधियों की गांठें

किस पार जाएं हम

निस्संगता से हासिल होगा मुकाम?

उजाले की चाहत ने दिया है अँधेरा

रौशनी क्या मिलेगी चिराग से

समय के अंतराल से उठा विक्षोभ

नैराश्य से निकलेगा आशा का गीत

या निस्सारता बनी रहेगी पाथेय

विचारों के कंदुक से आहत मन

मंथन के चक्र से निकलेगी कोई राह

आगत के गर्भ में छिपा है उत्तर

सवालों के घेरे में जकडा अस्तित्व

वैराग्य क्या है समाधान?

Wednesday, January 7, 2009

बाज आ जाओ

मजहब के अफीमचियों
विध्वंस के पुजारियों,
इंसानियत के हत्यारों,
बाज आ जाओ।
मुंबई ने लिख दी है
आतंक के भाल पर
नयी इबारत।
हम कायर नहीं,
इस क्रूर धर्मान्धता का,
दुनिया देखेगी,
हमारा प्रतिशोध।
मुगालते में हो,
बाज आ जाओ।


Tuesday, January 6, 2009

खूनी खेल

झारखण्ड में नक्सलियों ने एक और हत्याकांड को अंजाम दे दिया है और साबित कर दिया है कि सरकार चाहे तो भी वो लोगों को सुरक्षा नहीं दे सकती। पूर्वी सिंहभूम के तत्कालीन एस पी अरुण उरांव ने नक्सलियों के खिलाफ ग्रामीणों की टीम बनायी थी जिसे नागरिक सुरक्षा समिति का नाम दिया गया। इस टीम को पुलिस का परोक्ष समर्थन हासिल था और भावनाओं के उद्रेक में आकर नक्सलियों का सफाया भी शुरू हुआ। लेकिन अरुण उरांव अपने मूल कैडर पंजाब चले गए और एन एस एस की टीम को उचित समर्थन नहीं मिलने लगा। नक्सलियों का मनोबल बढ़ता गया और उन्होंने जमशेदपुर के युवा सांसद सुनील महतो को घाटशिला के निकट एक गाँव में छलनी कर दिया। ५ जनवरी २००९ को उन्होंने एन एस एस के महासचिव धनाई किस्कू को भी ताम्रनगरी मुसाबनी में मौत के घाट उतार दिया। नक्सलियों की हिट लिस्ट में और भी कई नेता हैं। आम लोगों ने तो समझ लिया है कि इस कहर से उन्हें कोई नहीं बचा सकता लिहाजा उन्होंने नक्सलियों की ताकत के आगे समर्पण कर दिया है। यही उनकी नियति है। पता नहीं कब तक ये खूनी खेल चलता रहेगा और लोग भय के वातावरण में अपनी जिन्दगी गुजारने को अभिशप्त रहेंगे? इस यक्ष प्रश्न का जवाब किसी के पास नहीं है। जनता के भाग्य विधाता होने का दंभ भरने वाले नेताओं के पास तो कदापि नहीं क्योंकि इस खेल में वे भी किसी न किसी रूप में शामिल हैं। आपके पास कोई जवाब है?

Friday, January 2, 2009

वे एक अजूबा इंडिया पेश करते हैं

समाचार माध्यमों में जो देश दिखाया जाता है वो आम लोगों का नहीं होता बल्कि महज पाँच फीसदी लोगों का होता है जिनके घर में समृद्धि का सागर हिलोरें मार रहा है.उन्हें विपन्नता के बे द्वीप दिखाई नहीं देते जहाँ दो जून की रोटी भी मुश्किल से मिल पति है। चाहे वो प्रिंट मीडिया हो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नए साल पर सबने ऐसी रंगीनियाँ पेश कीं गोया इस देश से गरीबी गायब हो गयी है। कह सकते हैं कि इस शुभ अवसर पर गरीबी कि बदरंग तस्वीर पेश करना गुनाह की मानिंद है। लेकिन क्या यह तथ्यपरक पत्रकारिता से मुंह चुराने की शुतुरमुर्गी नीति नहीं है? ३१ दिसम्बर की रात को बुद्धू बक्से पर जो रंगीनियाँ चमक रहीं थीं, उससे तो हमारे देश को एक अजूबे के रूप में पेश किया जा रहा था जहाँ हर तरफ़ हुस्न है, रवानी है का परचम लहरा रहा था। पता नहीं यह धारा हमें कहाँ ले जाकर छोडेगी?